मैं…. मैं किसान नहीं हूं
पर…पर मैं उसकी परछाई हूं
मैं भी खेती करती हूं….. मानव की
रोपती हूं छोटे- छोटे , नन्हें बीज मानवता के
और सींचती हूं रोज़… संवेदनाओं संग
आस और विश्वास की झारी से
रोज़ छिड़कती स्नेह
कठोर हो खुरपी भी चलाती हूं
संवेदना के अनुशासन संग
और सिंचित करती हूं नन्हें- नन्हें संस्कारों को।
पर….पर सच कहूं?
नहीं थोपना चाहती बड़े- बड़े कठोर उपदेशों को
डरती हूं …
कहीं डर ना जाएं मेरे भविष्य के अंकुर
कहीं असमय चिंथ ना जाएं भारी-भरकम उपदेशों तले
इसलिए संयम संग चलती हूं
उनके कोमल मनोभावों का हाथ थामे
और इंतजार करती हूं
एक सार्थक और सुलभ मोड़ भर आने का
और….
और मोड़ लेती हूं अपने संग
अपने उद्देश्यों संग
उन नन्हें सहचरों को
भविष्य की धरोहरों को
ऐसा नहीं कि बहुत आसान है राह
तपता है कभी ठिठुरता भी है
आधुनिक मशीनी युग का वातावरण
झूठ…. झूठ कैसे कहूं
सच तो ये है…..
डर भी लगता है, दर्द भी होता है
और तो और भ्रमित भी करता है
बाहर का सांसारिक दबाव
पर…..पर मैं फिर संभल जाती हूं
जानते हो क्यों..!
क्योंकि…….क्योंकि देख उन भोले चेहरों को
भविष्य की धरोहरों को
जिनकी आंखों में भोलापन लिए
असंख्य अस्पष्ट सी आशाएं हैं…….
उमंगे है और…. और सपने हैं
निश्छल प्रेम है…. अटूट विश्वास है
मैं… मैं डूब जाती हूं … मैं बार बार डूब जाती हूं
उनके निश्छल प्रेम और विश्वास की गंगा में
मन फिर चंगा हो जाता है
और…
मैं फिर उनकी अस्पष्ट सी आशाओं को… सपनों को
तराशने और आकार देने को तत्पर हो जाती हूं
फिर गढ़ने लगती हूं अपनी सुन्दर कृतियां
क्योंकि…. मैं अध्यापिका हूं
मैं नैतिकता और निष्ठा की शपथ लेकर आई थी
राष्ट्र के नवनिर्माण का उद्देश्य लेकर आई थी
मैं…..
मैं व्यवसाय नहीं करती
मैं उपार्जन करती हूं
और उसी को आत्मसात कर आगे बढ़ जाती हूं
मैं अध्यापिका हूं
संवेदनशील ज्ञान का उपार्जन ही
मेरा कर्म है,मेरा उद्देश्य है मेरे जीवन का संकल्प है
मैं राष्ट्र के नवनिर्माण का आधार हूं
मैं अध्यापिका हूं…
मैं अध्यापिका हूं ।
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